हास्य विलाप, मान अभिमान, सुख दुःख
राग अनुराग, सब पड़े रहते हैं यहीं
जब कूच कर जाए इंसान,
उम्र भर लिखते रहे
न जाने कितना
कुछ अंततः
कोरे रहे
सभी
किताब, सब कुछ है धुंध में डूबा हुआ दूर
तक, गुम हैं कहीं आलोक स्रोत, न
जाने कौन, चुरा ले गया नीला
आसमान, सब पड़े रहते
हैं यहीं बेतरतीब से,
जब कूच कर
जाए
इंसान, नियति बिछाए रखती है हर पल
सांप सीढ़ी का खेल, अभी मुख पृष्ठ
में है मेरी कहानी, किसे ख़बर
कब डूबा ले जाए, किनारे
का, घुटनों भरा
पानी, हमारी
दुनिया
का
क्षेत्रफल कभी न था किसी प्राचल में बंधा
हुआ, तुम आ न सके ये और बात है,
कदाचित, तुम्हें रोकता रहा
पूर्वजों का आनबान,
हमारे लिए तो
हर एक
चेहरा
था
आईने के समान, सब पड़े रहते हैं यहीं -
जब कूच कर जाए इंसान - -
* *
- - शांतनु सान्याल
16 नवंबर, 2020
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सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 17 नवंबर 2020 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह!बेहतरीन ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंअत्यंत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुंदर सराहनीय चिंतन होता है आपका आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंसादर
हार्दिक आभार - - नमन सह।
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