पांच दशक पूर्व, खेला गया वो लुक
छुप का खेल आज तक अपनी
जगह, यथावत, अनिर्णीत
ही रहा, उस पुरातन
मंदिर के शून्य
गर्भ गृह में,
प्रथम
प्रणय के बीज, अंकुरित हुए ज़रूर
लेकिन वट वृक्ष की जटाओं में
उलझ कर दम तोड़ गए,
या हो सकता है वो
परजीवों की
तरह
जीवित हों किसी और अमरबेल से
मिल कर, लोग कहते हैं कुछ
अनुभूतियाँ कभी मरती
नहीं, वक़्त बदला
मानचित्र
बदले,
वो
विग्रह विहीन देवालय, हमेशा की
तरह खण्डित ही रहा, वो
लुक छुप का खेल
आज तक
अपनी
जगह, यथावत, अनिर्णीत ही रहा,
समय के स्रोत में बहती रही
ज़िन्दगी, प्रथम स्पर्श
की ख़ुश्बू, मौन -
पलों के
सिहरन, तिर्यक नज़र का प्रलोभन,
द्विधाग्रस्त मुस्कान, अधरों
में पिपासित रेगिस्तान,
अपरिभाषित क्षणों
के सुप्त अरमान,
रूह में कहीं
रह गए
वो
सभी सदा के लिए, सिर्फ़ एक दूजे
को उम्र भर हम ढूंढते ही रह
गए, निरीह जीवन को
अपना पक्ष रखना
कभी न आया
लिहाज़ा
वो
हर जन्म में वक़्त से दण्डित ही रहा,
वो लुक छुप का खेल आज तक
अपनी जगह, यथावत,
अनिर्णीत ही
रहा - -
* *
- - शांतनु सान्याल
17 नवंबर, 2020
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