ठहरा हुआ हूँ मैं किसी अज्ञात अंतरीप
की तरह, न कोई बंदरगाह, न
कोई लंगर बिंदु, न दूर तक
कोई जलपोत, फिर भी
प्रतीक्षारत हैं मेरी
आंखें किसी
विस्फारित सीप की तरह,वो मुक्ता है
या कोई रंगीन पत्थर,आस्था में
लेकिन फ़र्क़ नहीं पड़ता रत्ती
भर, वो जलता है उर्ध्व -
मुखी किसी विस्मृत
मंदिर के सांध्य
प्रदीप की
तरह,
तुम्हारी निष्ठा मुझे रखती है जीवित
तुषार परतों के गहन में, तुम्हारे
उन्मुक्त हाथ उभार लाते
हैं मुझे आग्नेयगिरि
के दहन से, वो
अनंत प्रेम
है या
कोई दिव्य अनुभूति, जो करता है - -
मुझे आत्मविभोर किसी
आकाशगंगा की
द्वीप की
तरह,
ठहरा हुआ हूँ मैं कब से किसी अज्ञात
अंतरीप की तरह - -
* *
- - शांतनु सान्याल
02 नवंबर, 2020
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सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंवाह।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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