10 नवंबर, 2020

परछाइयों का जिस्म - -

सभी एक ही पथ के हैं यात्री, कौन
कब और कहाँ हो जाए गुम  
कुहासे के देश में कहना
है बहुत कठिन,
बहुत कुछ
पाने की
चाह
में बहुत कुछ छूट जाता है, फिर -
भी अभिलाष की तालिका
रहती है अंतहीन,
यदि किसी
दिन
विस्मृत मरूद्वीप के तट, मुलाक़ात
हो अकस्मात, तो सुनाऊँगा  
मैं तुम्हें मरीचिका की
नीरव कहानी,
बहुत कुछ
जीवन
में
रह जाते हैं अनुच्चारित, वक्षस्थल
की गहराइयों में चिरस्थायी
विलीन, किन्तु रूकती
नहीं कभी अदृश्य
पवन चक्की,
कोई
किसी के लिए नहीं रुकता, आकाश
का मंच कभी ख़ाली नहीं रहता,
यथारीति लगते रहते हैं
चाँद सितारों के
सम्मलेन,
पृथ्वी
के
सीने में रतजगा करते हैं सहस्त्र -
युगों के दबे हुए, अनगिनत
सुप्त दहन, घात और
प्रतिघात के मध्य,
शांति जल !
सिर्फ़
एक बूंद तलाश करता है परिश्रांत
ये जीवन, शून्य दिगंत में
उभरते हैं टूटे फूटे
अस्तगामी
चाँद के
बहु -
प्रतिफलन, एकटक देखते हैं नभ
की और अरण्य कुसुम,
अंतरतम का
इतिवृत्त,
ख़ुद
के
सिवा कोई नहीं जानता, पुनः वही
परिचित गंतव्य के टुकड़े, संकरी
गली, सुरंग, सीढ़ियों की
ज्यामिति, मेट्रो ट्रेन,
जन अरण्य के
मध्य ख़ुद
की
खोज, मैं या तुम कुछ भी नहीं -
सभी हैं सहयात्री, कितने
दूर संग चलेंगे बस
यही समझना
है मुश्किल,
समय
सिर्फ़
भागे जा रहा है, हम और तुम हैं
बैठे हुए, निःशब्द, एक दूजे
के सामने, खिड़की के
उस पार, उड़ रहे
हैं बादल
और
दौड़े जा रहे हैं दरख़्तों के असंख्य
क़तार, परछाइयों के जिस्म
पर चाँदनी लिख रही
है अनकही प्रेम
की कहानियां,
या तुम छू
रहे हो
मेरी
रूह के नाज़ुक परतों को बार बार।

* *
- - शांतनु सान्याल    

 

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