08 नवंबर, 2020

स्थगित देशांतरण - -

पिंजरे का द्वार खुला है फिर भी
मैं उड़ नहीं सकता, घेरते
हैं मुझे मोह के परकोटे,
चौखट तक जा
लौट आता
है हर
बार,
मेरे भीतर का अहंकार, हर एक -
चार दिवार के अन्तः छत -
में होते हैं विरोधाभास,
"जोगी मत जा - - "
कोई नहीं
कहता,
जब
सीने का प्रपात झर कर ख़ाली हो
जाए, उत्तरोत्तर शयन कक्ष
के ऊपर, पुनः हम बुनते
हैं नीला आकाश,
कुछ देर के
लिए
ही
सही मानचित्र अपनी जगह रुक
जाते हैं अनिश्चित काल के
लिए, पासपोर्ट में कहीं
लग जाती पुनः -
प्रवेश की
मुहर,
सुनहरी धूप पर्दों में आ कर कुछ
ठिठक सी जाती है, रिश्तों को
चाहिए कुछ और वक़्त,
परस्पर देखभाल
के लिए,
शीत -
युद्ध के बाद समय लगता हर शै
को, यथापूर्व बहाल के लिए।

* *
- - शांतनु सान्याल     

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