27 नवंबर, 2020

इस पल में जी लें - -

नदी हर मोड़ पर ख़ुद को मोड़ लेती
है, कभी इस किनारे लहलहाते
धान के खेत, कभी उस
किनारे रेतों के देश,
छोड़ जाती है।
हम बढ़ते
जाते
हैं हर पल नवीनता की ओर, जिसका
कोई भी सीमान्त नहीं, स्वप्न
हो या सत्यानुभूति, सिर्फ़
इस पल में है कहीं
सभी समाहित,
शून्य
के सिवा कुछ भी इसके उपरांत नहीं।
ये सही है, कि मैं घिरा हुआ हूँ
सघन मेघों के हाथ, ये
न ही बरसेंगे, न ही
तूफ़ान को देंगे
निमंत्रण,
कुछ
प्रहरों का है आतंक, सूरज डूबते ही -
ये क्रमशः पा जाएंगे किसी
चित्रकार का आमंत्रण।
आस्था की सतह
होती है बहुत
ही नाज़ुक
टूटने
में
एक पल है काफी, जोड़ने में उम्र ही
न गुज़र जाए, अतीत के कोहरे
में जो खो गया सो गया,
उसे ढूंढने में कहीं,
वर्तमान हमें ही
न बिसर
जाए।

* *
- - शांतनु सान्याल  
 

16 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२८-११-२०२०) को 'दर्पण दर्शन'(चर्चा अंक- ३८९९ ) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  2. एक पल है काफी, जोड़ने में उम्र ही
    न गुज़र जाए, अतीत के कोहरे
    में जो खो गया सो गया,
    उसे ढूंढने में कहीं,
    वर्तमान हमें ही
    न बिसर
    जाए।

    वाह!!
    उम्दा।

    जवाब देंहटाएं
  3. अतीत के कोहरे
    में जो खो गया सो गया,
    उसे ढूंढने में कहीं,
    वर्तमान हमें ही
    न बिसर
    जाए।
    एकदम सटीक...लाजवाब सृजन

    जवाब देंहटाएं
  4. नदी हर मोड़ पर ख़ुद को मोड़ लेती...

    बहुत खूब...
    बहुत खूब...
    बहुत खूब...

    जवाब देंहटाएं

  5. आस्था की सतह होती है बहुत ही नाज़ुक टूटने में एक पल है काफी,जोड़ने में उम्र ही न गुज़र जाए।
    सही कहा आपने।
    आस्था और विश्वास एक नाज़ुक डोर ही है कौन सा प्रहार उसे खण्ड़ित कर दें,और वापस उस अवस्था को प्राप्त करना बहुत कठिन है।
    यथार्थ चिंतन।

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