06 नवंबर, 2020

किनाराकशी - -

अनगिनत बार टहनियों से टूटे पत्ते,
न जाने कितने बार लौट गया
मधुमास, कुछ स्तम्भित
सा देखता रहा उसे,
नए आईने में
पुरातन
कोई
अज्ञातवास। आँखों में थी दूर तक -  
बियाबां की अंतहीन ख़ामोशी,
सीने में बिखरे हुए ईंट -
पत्थर, जाहिर था
मेरे सामने
उसका
राजमहल से सड़क तक का सफ़र।
अकस्मात इस मुलाक़ात में थे
न जाने कितने काग़ज़ी -
नाव के प्रश्नचिन्ह,
जो उभरते ही
डूब गए,

ओंठ ही हिले, न ही दिल के द्वार
खुले, दरअसल वक़्त हर चीज़
में जंग लगा जाता है, सभी
निशान उसके नीचे
रह जाते हैं गुम
हो कर,
चाहे
वो अधर के हों या भीगे लम्हों के
युगल पदचिन्ह। किनारों की
तरफ हसरत भरी निगाह
से सिर्फ़ देखता रहता
है टूटा हुआ पुल,
अपने अपने
हिस्से
की
टूट - फूट ले कर जीना ही है - -
ज़िन्दगी, हिसाब किताब
इसी में है कुल, हसरत
भरी निगाह से
सिर्फ़ देखता
रहता
है
टूटा हुआ पुल - -

* *
- - शांतनु सान्याल

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