परिश्रांत क़दमों से, हर रात मैं लौट
आता हूँ, उसी पुल के पास,
जिसके नीचे जमी
रहती है, मेघ
की तरह
नींद,
कुछ पुनर्जन्म की अद्भुत सी प्यास।
मैं बैठता हूँ उस पल्लव विहीन
देवदारु के नीचे, एकटक
देखता हूँ, आकाश -
पार का महा -
समारोह,
उस
रौशनी की भीड़ में तलाशता हूँ ओस
का जन्म स्थान, ह्रदय परतों
में कहीं गिरती हैं, बूंद बूंद,
न जाने किसके पलकों
से टूट कर रश्मि -
कण, उन्ही
अमूल्य
क्षणों
में जीवन पाता है, अनगिनत चाहों
से अवसान। वो कहीं परोक्ष
रूप से रहता है तुम्हीं में
शामिल, अदृश्य
प्रेम की तरह
उभरता
है
अक्सर, उभार लेता है सहसा डूबने
से पहले, तुम्हारे अंतरतम में
कहीं होता है वो घनीभूत
अमर प्रणय की तरह,
चुपचाप आता है
मध्यरात
में
ईशानकोण में कहीं, बरसा जाता है
ख़ुद को उम्मीद की ज़मीं
सूखने से
पहले।
* *
- - शांतनु सान्याल
28 नवंबर, 2020
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सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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