26 नवंबर, 2020

गतिशील जीवन - -

कुछ वृत्तांत के नहीं होते उपसंहार,
वास्तविकता के आगे जीवन -
कथा हार जाती है हर
बार, कोई रुका
नहीं रहता
किसी
के
लिए, बस स्मृति जम कर बनाती हैं
हिम युग का संसार, कुछ लगाव
उभर पाते ही नहीं उष्ण
चाय की प्याली से,
उंगलियों में
रहते हैं
सिर्फ
चिपचिपाहट के अहसास, बिस्कुट के
रंग का सूरज, डूब के तलाशता
है नयी सुबह, नदी के उस
पार, सभी लोग लौट
जाएंगे अपने
अपने
घर,
धुआं भी जा मिलेगा किसी और धुएं के  
साथ, नदी के सीने में क्या रहस्य है
ये वही जाने, मंदिर के अहाते,
बूढ़े बरगद में नहीं रुकता
कभी, पक्षियों का
कोलाहल -
भरा
बाज़ार, प्राचीन देवालय का दीया बुझ
के भी जलता रहता है रात भर,
दिवानिशि के अनुबंध में
बंधा रहता है जीवन
का सफ़र, कहाँ
थमता है
इस
जग में प्राणों का विनिमय, सपनों का
कारोबार - -

* *
- - शांतनु सान्याल  
 
 



11 टिप्‍पणियां:

  1. लगातार लिख रहे हैं जैसे नदी बह रही हो। जारी रहे सफ़र।

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  2. उत्कृष्ट शब्द विन्यास के साथ विशेष रूप की पिरामिड शैली निरंतर ही पाठकों को आकर्षित करती है जिसमें मैं भी शामिल हूँ।
    सादर

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  3. हर
    बार, कोई रुका
    नहीं रहता
    किसी
    के
    लिए, बस स्मृति जम कर बनाती हैं
    हिम युग का संसार....

    कोमल भावों से परिपूर्ण बहुत सुंदर रचना !!!
    हार्दिक बधाई!!!

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