समय अपना वादा नहीं निभाता,
सूर्य हौले से, धूप की चादर
डूबने से पहले खींच
लेता है, शायद
उसे ओढ़ाना
हो किसी
और
को गर्माहट देने के लिए, ऋतुचक्र
की सुई देर नहीं करती, हरे
पत्तों को सूखाने में,
मैंने चाहा है कई
बार तुम्हारे
सपनों
को
क़रीब से छूना, लेकिन पलकें है कि
अक्सर खुल जाती हैं, तुम रख
जाते हो उष्ण छुअन मेरे
सिरहाने में, तुम
छोड़ जाते
हो कुछ
धूप
के टुकड़े भग्नस्तूप के ऊपर यूँ ही -
अनजाने में, ज़िन्दगी फिर
चाहती है सहेजना उम्र
की बिखरी हुई
पटभूमि
को,
अभी तक हैं मौजूद गहराइयों में -
स्मृति स्तम्भ, छत ढह गए
तो क्या हुआ, समय
सेंध न कर सका
मेरे दिल के
ख़जाने
में,
तुम आज भी हो मौजूद जिस्म के
बहुत अंदर, तुम कल भी रहोगे
ज़िंदा, मेरी मुहोब्बत के
उजड़े फ़साने में।
* *
- - शांतनु सान्याल
05 नवंबर, 2020
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 04 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०७-११-२०२०) को 'मन की वीथियां' (चर्चा अंक- ३८७८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएं