25 नवंबर, 2020

परम सत्य - -

मृत्यु, लघु कथा से अधिक कुछ
नहीं, जीवित रहना ही है
उपन्यास, कई पृष्ठों
में लिखी गई ये
ज़िन्दगी,
फिर
भी अनबुझ ही रही, तेरी मेरी ये
सदियों की प्यास, वो तृष्णा
जो ले आती है पुनर्जन्म
नदी के तीर, मुझे
बारम्बार,
वही
ये जगह है, जहाँ आकाश लुटा
देता है, बिहान से पहले,
अमूल्य नक्षत्रों का
चंद्र हार, इसी
उपहार
के
मध्य तुम हो अर्ध सुप्त से कहीं
फूल वृन्तों में समाहित, वो
प्रेम है या अनहद कोई
उपासना, कदाचित,
कुछ अनुभूति
रहते है
सदैव
अपरिभाषित, गंध कोषों में आ
मिलते हैं वो सभी स्रोत जो
नयन बिंदुओं से हैं
प्रवाहित, सूर्य
की प्रथम
किरण
के
तट में कहीं रहता है वो परम
सत्य, अधखुली पंखुरियों
में शायित।

* *
- - शांतनु सान्याल

14 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२६-११-२०२०) को 'देवोत्थान प्रबोधिनी एकादशी'(चर्चा अंक- ३८९७) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  2. वाह!लाजवाब !सही कहा आपने ..मृत्यु लघुकथा से अधिक नहीं ,चलो ...जीते जी सुंदर उपन्यास का सृजन करें ।

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  3. बहुत सुंदर! गहन भाव, आध्यात्मिक झुकाव लिए अप्रतिम सृजन।
    मुग्ध करती है आपकी रचनाएं।

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  4. सूर्य
    की प्रथम
    किरण
    के
    तट में कहीं रहता है वो परम
    सत्य, अधखुली पंखुरियों
    में शायित।...।बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...।

    जवाब देंहटाएं

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