वो पुंसत्व था, या कायरता कहना नहीं
आसान, यशोधरा के शून्य करवटों
में था, असमय अपरिग्रह का
अभिमान, हर युग में
बनते हैं न जाने
कितने बुद्ध,
नेपथ्य
में
रहती हैं मौन मुखरता, एकाकी हाथों
में लिए हुए नव युग का वरदान,
सहज है याचक बन कर वन
प्रांतर में घूमना, बहुत
कठिन है मोह के
धागों में बंध
कर, सभी
चाहों
का
करना अवसान, अंतहीन जिजीविषा
थी उसके आँखों के नीरवता में,
उस अजेय अस्तित्व ने ही
बनाया था, एक आम
आदमी को पूज्य
भगवान,
किंतु
आड़ की भूमि हमेशा रहती है जन -
शून्य, यवनिका के पार होती
है आलोक वृष्टि, नेपथ्य
के अंधेरे में रहता है
चिर सुनसान,
यशोधरा के
शून्य
करवटों में था, असमय अपरिग्रह
का अभिमान - -
* *
- - शांतनु सान्याल
03 नवंबर, 2020
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जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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