21 नवंबर, 2020

धूसर लकीर - -

एक के बाद एक क्रमशः गुज़रते रहे,
दिन, जंग लगे सीने में चुभते
नहीं आलपिन, नदी का
वक्षस्थल, जितना
था अंतःनील,
उतना ही
क़रीब
आता रहा प्रलोभित शंख चील, उस
मेघना यवनिका के नेपथ्य में
कहीं बहती रही, उज्जवल
धूप की नदी, सुख
की अभिलाष
में हमने
बुने
दुःख के जाल अंतहीन, चंद्रसुधा की
आस में समेटते रहे अमावस
का अंधविष, कुछ और
थोड़ा कुछ और
अधिक एक
अनबुझ
प्यास
बढ़ता रहा अहर्निश, दिन बदलते रहे,
नए नाज़ुक भूगर्भ में बढ़ता रहा
जड़ों का जाल, देह में जमते
रहे छद्मरूपी छाल, हर
चीज़ थी रंगीन
फिर भी
रातें
निद्रा विहीन, माटी से जमें रहने की
प्रतिश्रुति हम भूलते गए, हमने
ऊंचाई से बांधा था रिश्ता,
चाँद तारों से की थी
मित्रता, लेकिन
तूफ़ान के
आगे
कोई नहीं टिकता, उसकी आँखों में
सिर्फ़ होता है अदृश्य अहंकार
का दमन, वो गुज़रता
है अपनी शर्तों पर,
धूलिसात कर
जाता है
सब
कुछ, विशाल वट वृक्ष उखड़ कर
पड़ा रहता है उपेक्षित नदी
तट पर बहुत एकाकी
और संगहीन,
धूप छाँव
के
मध्य होती है एक धूसर लकीर - -
बेहद महीन - -

* *
- शांतनु सान्याल  
   
 



 

12 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन के यथार्थ का अक्षरशः बोध कराता लाजवाब सृजन.. सादर नमन !

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 22 नवंबर नवंबर नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. वाह !बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन आदरणीय सर।
    सादर

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  4. कुछ, विशाल वट वृक्ष उखड़ कर
    पड़ा रहता है उपेक्षित नदी
    तट पर बहुत एकाकी
    और संगहीन,

    –कुछ नियति कुछ नियत फलस्वरूप

    –उम्दा रचना

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