23 सितंबर, 2020

पुनः देह प्रवेश - -

 

बरामदे की आयु समाप्ति की ओर है
या धूप की है अपनी निर्वाचन
विधा, कहना कठिन है,
लेकिन यही तो है
जीवन की
वास्तविकता, समय का स्रोत कभी
नहीं रुकता बहा ले जाता इस
पार उस पार सब कुछ,
दोनों किनारे में
पड़े रहते
है कुछ
स्मृति के धूसर खोल, और विस्मृत
गीतों के स्वरलिपि, जीवन नैया
अपने लय में बहती जाती
है सुदूर अज्ञात द्वीपों
की ओर, फिर
भी मन
लौट के देखना चाहता है पीछे छूटे
हुए घाट, मंदिर की सीढ़ियां,
और सुदूर टिमटिमाते
हुए साँझ बाती,
और मद्धम
सुरों
में सांध्य आरती, कहीं बहुत दूर तुम
अभी भी खड़ी हो, धुंधलके में
लेकर आँखों में स्वप्न
अंजलि, इतना
सहज नहीं
मायावी
दीपों को नदी के तट पर यूँ ही बहा
देना, अचानक सब कुछ जैसे
सहस्त्रमुखी आरसी -
नगर, चारों तरफ
प्रतिध्वनित
ख़ुद का
प्रतिफलन, शेष प्रहर में नदी का - -
सहसा सूख जाना, पलातक
भावनाओं का पुनश्च
देह के टूटे पिंजर
में लौट आना,
बरामदे
की
एक मुट्ठी धूप की चाहत आसानी से
ख़त्म कभी होती नहीं - -  
* *
- - शांतनु सान्याल





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