24 सितंबर, 2020

एकाकी यात्रा - -

 कुछ लोग अंदर से होते हैं सघन
आभासी, बाहर से धुले हुए,
उजले उजले से, कोरे
कपड़े की तरह,  
करते हैं
इकट्ठे सिर्फ शाबासी। कुछ लोग -
बाहर से होते हैं धूसर, किंतु
अंतर में छुपाए रखते
हैं मरूद्वीप, जैसे
मुक्ता छुपा -
रखे कोई
सीप।
किताबों में जो ढूंढते हैं रूपकथा,
वो क्या जाने ज़िन्दगी की
वास्तविकता, अग्नि -
पथ में चले बग़ैर
मुश्किल है
जलने
की
अभिज्ञता। तुम क्यूँ न जीत लो  
सारी दुनिया, दर्पण उतार
ही देगा तुम्हारे छद्म -
आवरण, अंतर्मन
के आगे तुम
निर्वस्त्र
खड़े
हो, बिखरे पड़े हैं चारों तरफ बस
चमकीले मिथ्याचरण। अपने
ही यक्ष प्रश्नों का उत्तर
देना यहाँ आसान
नहीं, सभी
अपने
पराए लौट गए, उठता रहा धूम्र
वलय उर्ध्वमुखी, तुम्हारे
हाथों में अब कोई भी
आसमान नहीं,
आकाश
पथ
में तुम्हारी है एकाकी यात्रा, यहाँ
किसी से कोई जान पहचान
नहीं, न सराय, न कोई
रहनुमा, तुम हो और
महाशून्य, यहाँ
कोई वास
स्थान
नहीं।
* *
- - शांतनु सान्याल  
 

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