जीवन की परिभाषा, उलझा हुआ ऊन
का गोला है, इस सिरे को लपेटो
तो खुल खुल जाए दूसरा
किनारा, चंद शब्दों
के गांठ से उसे
बांधना है
कठिन,
अंतहीन चाहतों का अध्याय, समझने
में जिसे पुनर्जन्म का है सहारा।
वो ख़्वाब जिसमें हर एक
चेहरा लगे खिलता
हुआ गुलाब,
और
रिश्तों में हो पारदर्शिता अगाध। उस -
दिव्य स्तर पर काश पहुँच पाए
कभी, अंतरतम का कुहासा
इतना घना कि अपना
बिम्ब भी न देख
पाए कभी।
उस
अदृश्य परिधि में जिस बिंदू से निकले
उसी बिंदू पर पुनः हम लौट आए,
और अधिक, और ज़्यादा
पाने की ख़्वाहिश,
अंदर गढ़ता
रहा
तृषित बियाबान, क्रमशः हम भूलते गए
दूसरों के निःश्वास, मुस्कुराहटों के
नेपथ्य का दर्द, बचाते रहे ख़ुद
को अंधकार गुफाओं से,
पाँव पसारता रहा
लेकिन हमारे
बहुत अंदर
तक
अनिःशेष रेगिस्तान। तुम्हारे चुम्बन - -
आलिंगन, सुखद नज़दीकियां सभी
थे अर्थहीन, रूह को किसी तरह
भी न बाँध पाए, वो घुटता
रहा पिंजर में किसी
अर्ध पंखी शुक
की तरह,
और
कभी किसी तरह उड़े भी तो सुदूर नील -
समुद्र हंसता रहा लवणीय व्यंग्य
की तरह - -
* *
- - शांतनु सान्याल
29 सितंबर, 2020
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बहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 29 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंतृषित बियाबान, क्रमशः हम भूलते गए
जवाब देंहटाएंदूसरों के निःश्वास, मुस्कुराहटों के
नेपथ्य का दर्द, बचाते रहे ख़ुद
को अंधकार गुफाओं से,
पाँव पसारता रहा
लेकिन हमारे
बहुत अंदर
तक
बहुत ही सुन्दर सार्थक...
वाह!!!
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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