पुरातन पुस्तकीय गंध, सूखे
हुए फूल के निशान, जर्जर
पृष्ठ को पलटती हुई
मेरी कांपती
उंगलियां,
दरख्तों
पर
लिखे नाम, शायद वहीं कहीं
आज भी जुगनुओं के
घूमते हैं ज्योति -
वलय, क्या
आज
भी तुम्हें है अचानक छूने का
भय । शेष प्रहर की वृष्टि,
उपत्यका से उठता
धुंआ, भीगी -
भीगी सी
महक,
सुदूर घाटियों के नीचे दो -
अरण्य नदियों का
सम्मिलन, और
फिर अज्ञात
गुफा में
उनका
खो जाना, कितना सुख है -
उन पलों में अनायास
ही किसी का हो
जाना।
किंतु
समय का स्रोत कहाँ बहता
है समान्तराल कगार
लिए, कभी वक्ष -
स्थल में
उग
आएं मरुभूमि और कभी वो
बहे असीम जलधार लिए,
कभी तुम हो बहोत
क़रीब, दूर हो
के भी,
और कभी लगे तुम जा चुके
बहुत नज़दीक से अपने
हिस्से का उपहार
लिए।
* *
- - शांतनु सान्याल
10 सितंबर, 2020
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
हटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 11 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
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