20 सितंबर, 2020

केतकी वन के पार - -

अधूरा रहा जीवन वृत्तांत, तक़ाज़े से
कहीं छोटी थी रात, हर चीज़ को
लौटाना नहीं आसान, संग
हो के भी कुछ निःसंग
पल, निबिड़ रात्रि
विवस्त्र
एकांत। हर तरफ अंकों का बिखराव, -
गणित की किताब अंदर तक
खोखली, इस ध्रुव से उस
छोर तक कहीं नहीं
तुम्हारा सुराग़,
कुछ नमी
कुछ
कम्पन लेकिन कहीं नहीं उँगलियों के
अग्रभाग। धुंध ही धुंध, दूर तक
परिचित देह गंध, केतकी -
वन, सुदूर कहीं हो
शायद मृगतृषा
मंज़िल,
तुम और हम, भोर का निःशब्द अति -
क्रमण, कई बार लिखे, कई बार
मिटाए, असफल रहा न
जाने क्यूँ सांसों का
अन्त्यमिल।
* *
- - शांतनु सान्याल

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