तोरई की बेल और ओसारे की धूप,
छूना चाहे माटी का देह, तेरी
ऊँची अटारी हे अवधूत,
हिय के बीच बसे तू
जल बिम्ब के
अनुरूप।
सभी नदियाँ आ मिले फिर भी वक्ष
स्थल रहा नोनी देश, पंछी लौटे,
नौका पहुंचे अपने घाट,
तन की झोली सदा
रिक्त, उठ गए
सभी
बाज़ार हाट, सांध्य वृष्टि, नगर - -
जनपद सब भीगे, अंतरतम
जस का तस धु धु करता
मरू प्रदेश, कुछ
शब्दों के
धुंध,
कुछ तिर्यक रेखाओं के जाल, कुछ
कोरे पासबुक, कांच विहीन
कालग्रस्त चश्में का
फ्रेम, टूटे बटन
का कुर्ता,
बस
इतना ही है मेरे सीने में रखा सदियों
का अवशेष - -
* *
- - शांतनु सान्याल
19 सितंबर, 2020
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जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार - - नमन सह।
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