11 सितंबर, 2020

रोशनदान से बाहर - -

मुझे चाहिए विस्तीर्ण रोशनदान,
जहाँ हर कोई रख सके कुछ
बूंद रौशनी के, और
खोल सके जंग
लगे संदूक
के
ताले, न जाने कितने दिनों से -
पड़े हुए हैं कोरे जज़्बात, तह
किये हुए कुछ दिल के
अरमान, मुझे
चाहिए
विस्तीर्ण रोशनदान। कौन है जो
रात ढले दस्तक दे कर छुप
जाता है, ख़ुश्बुओं का
कोई ताज़ातरीन
अख़बार
दिए
जाता है, मुझे ज्ञात है मध्यांतर
के बाद का रहस्य, फिर भी
शीर्षबिंदू मुझे चुनौती
दिए जाता है, मैं
चल पड़ता
हूँ उसी
आग्नेय पथ पर निरंतर, समय
इस दग्ध जीवन को कुछ
और निखार दिए
जाता है।

* *
- - शांतनु सान्याल  
 

 
 
 

5 टिप्‍पणियां:

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past