पाप पुण्य के चक्रांत में फेंक देह प्राण,
वो अब अर्ध नग्न शरीर लिए चढ़
रहा है मंदिर सोपान, नदी
यथारीति, देखती है
विस्मय से
उसका
ये आडम्बर युक्त आरोहण, उत्तरीय -
विहीन काँधे से छलकना चाहता
पवित्र जल कुम्भ, वो अभी
है महा ऋत्विक, पार
कर आया हो जैसे
क्षीरसागर !
शायद
वो अब पोंछेगा, देवालय का उपास्यमंच,
गूंथेगा कुसुम माला, पत्थर में घिसेगा
चन्दन काठ, जगाएगा पञ्च
प्रदीप, किन्तु ह्रदय शंख
यथावत है निःशब्द,
ध्वनि विहीन
चाहे
जितना फूंको, प्रतिध्वनि लौट कर नहीं
आएगी, तुलसी माला छू कर वो
करना चाहता है प्रायश्चित,
लेकिन उसके देह कोष
में हैं सहस्त्र माया
आबद्ध ! वही
आदिम
युगीन आग्नेय खेल, बलात प्रस्फुटन
का है वही नेपथ्य दलपति, विश्व
में सिर्फ वही नहीं नक़ाबपोश,
समस्त तथाकथित
दिव्यलोक के
ठिकाने
है उन्हीं छद्म पुरुषों के पास, उन्हें ज्ञात
है कैसा रखा जाए समाज को अपनी
मुट्ठी में, वही धीमे ज़हर का
दीर्घकालीन असर,
अपने वजूद
के लिए
जादू का खेल और अंत में अपने माथे
पर रंगीन पंखों का गुच्छ ! जो
कहना चाहता है, वही एक
है श्रेष्ठ पुरुष, धर्म
का एकमात्र
पुरोधा,
समाज केवल है उसका अनुचर, शोषण
का चाबुक है उसके हाथ वो जहाँ
चाहे वहां ले जाएगा हाँक
कर, लेकिन उसी
बिंदू पर है
ठहरा
हुआ आगामी काल का महाभारत किसी
अदृश्य शंख के उद्घोष पर - -
* *
- - शांतनु सान्याल
28 सितंबर, 2020
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सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 28 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंसमस्त तथाकथित
जवाब देंहटाएंदिव्यलोक के
ठिकाने
है उन्हीं छद्म पुरुषों के पास, उन्हें ज्ञात
है कैसा रखा जाए समाज को अपनी
मुट्ठी में !!!
इन छ्द्म पुरुषों ने समाज को अपनी अँगुलियों पर नचाया, पाप पुण्य की अपनी परिभाषाएँ गढ़ीं, ये जब चाहें महाभारत करा सकते हैं.... फिर चाहे कृष्ण ही क्यों ना चले आएँ शांतिदूत बनकर...
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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