हर दिन की तरह आज का
दिन भी गुज़र गया, मेरी
हथेलियों में छोड़ गया
प्रश्नचिन्हों का जाल,
उजाले का मुकुट
उतार कर वो
पहना गया
अंधेरे
का ताज, बादलों का लिबास
ओढ़े, पहाड़ों के उस पार
न जाने किस के सीने
में वो उतर गया,
आज का
एक
और दिन, यूँ ही गुज़र गया ।
उफनते गर्म दूध की
तरह शहर की
बत्तियां
फिर
एक बार जल उठेंगी, लेकिन
कुछ घरों में, ख़ाली बर्तनों
के आवाज़, धीरे धीरे
अंधेरे के साथ
मूक हो
जाएंगे, सुबह ख़बर होगी एक
नव युवक कोरोना से मर
गया, फिर एक दिन
गुज़रेगा, जहां
डूबा था
सूर्य
वहीं से फिर उभरेगा, ज़िन्दगी
फिर निकलेगी उतरन के
बाज़ार में, लोग फिर
खरीदेंगे केंचुली
के पोशाक,
बघनखा,
शुभ्र -
विष दंत, निशाचर के सरंजाम,
क्रमशः रात गहराते चल
पड़ेंगे मृगया पथ
पर सफ़ेदपोश
तमाम ।
* *
- -शांतनु सान्याल
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर और भावपूर्ण रचना।
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
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