22 सितंबर, 2020

निकटवर्ती लोग - -

निःशर्त कुछ भी नहीं है इस
जगत में, फिर भी
अच्छी लगती
है झूठी
प्रतिश्रुति, कुछ भीगा भीगा
सा मनुहार, ज़रा सा  
ही सही कुछ तो
रहे मेरे
भीतर,ग्रीष्म शेष की अनाहूत
सांध्य वृष्टि, कदाचित
सोंधी गंध बन
जाए एक
दीर्घकालीन अनुभूति, बहुत -
दिनों के पश्चात वो झांक
गए अधखुले दरवाज़े
से, कहने को यूँ
तो वो हैं
बहुत
निकटवर्ती, दरअसल हर कोई
है अपनी ही परिधि में
उलझा हुआ, किसे
कौन कहे भला
बुरा, सब
कुछ
तो है अपनी ही निर्मिति, बस
वक़्त के प्रवाह में ख़ुद को
बहाना है ज़िन्दगी,
अच्छी लगती
है झूठी ही
सही
प्रतिबिम्ब की शून्य प्रतिश्रुति।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

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