02 सितंबर, 2020

शून्य लिफ़ाफ़े - -

कुछ बूंद ही काफ़ी हैं कोपलों के
लिए न बांधो इस तरह की
दरख़्त ठूंठ बन कर
रह जाए, उनकी
वाबस्तगी
मुझसे
इतनी न बढ़े कि दूर जाने से -
ज़िन्दगी ही इक हसीं
झूठ बन कर
रह जाए।
चाहे
जितना क्यूँ न हम टूटें अपने
अंदर, लेकिन बाहर से
जुड़ना ज़रूरी है,
कोई भी
मुड़
के नहीं देखता छूटे हुए राही -
को, अपने दर्द से ख़ुद ब -
ख़ुद उभरना ज़रूरी है।
गुलमोहर के
खिलते
ही
पतझर का आना अप्रत्याशित
नहीं, कभी अचानक उड़
जाते हैं शब्द, पत्तों
की तरह धूसर
पहाड़ के
पृष्ठों
में,
और कभी रह जाते हैं रिक्त -
रंगीन लिफ़ाफ़े हमारे
हाथों में, और
कभी कोई
ख़ुश्बू,
अनाम फूलों की तरह महकती
है, ख़ाली पड़े बेतरतीब सी,
ज़िन्दगी के बही खातों
में, कभी रहते हैं
शून्य, रंगीन
लिफ़ाफ़े
हमारे
कांपते हाथों में - -

* *
- - शांतनु सान्याल

 



   

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