07 सितंबर, 2020

हठात् एक दिन - -

फिरकी की तरह वक़्त घूमता
रहा, लम्हें टूट कर यहाँ
वहां बिखरते रहे,
कुछ मासूम
पौधे, रूखे
दरख़्त
में तब्दील होते चले गए, कुछ
वक़्त से पहले ठूंठ हो गए,
पहले प्रतिबिंब मेरा,
मुझे देखता था
निष्पलक,
क्रमशः
झुर्रियों के शब्दकोश मुश्किल
होते चले गए। हठात् एक
दिन, व्याध - पतंग
की तरह मेरे
पारदर्शी
पंख
झील से उभरे, और निमिष -
मात्र में उड़न खटोला
हो गए, मैं छोड़
आया जल -
सतह
पर
कवच कुण्डल अपने, लेकिन
ये नहीं कोई, आत्मघाती
उड़ान, मुझे बनना
है सर्वज्ञ यान,
जल, थल,
नभ
में
विचरण करना है एक समान,
मैं ग़र चाहता तो उसी झील
के अंदर निजस्व देह
पर खोल गढ़ता,
और क्रमशः
जल बंदी
हो
जाता, लेकिन मुझे तो है छूना
उन्मुक्त शारदीय आसमान।

* *
- - शांतनु सान्याल 




 

11 टिप्‍पणियां:

  1. बेशुमार शुक्रिया के साथ शुभ रात्रि, परम मित्र।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (09-09-2020) को   "दास्तान ए लेखनी "   (चर्चा अंक-3819) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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  3. बहुत सुंदर सृजन, मुखरित होते हौसले।

    जवाब देंहटाएं
  4. आदरणीय शांतनु सान्याल जी, नमस्ते! आपने मुक्त छंद की इस कविता में शब्दों का औंधा पिरामिड बनाया है, बहुत अच्छा लगा। और ये पंक्तियाँ तो लाजवाब हैं:
    लेकिन मुझे तो है छूना
    उन्मुक्त शारदीय आसमान। हार्दिक साधुवाद!
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    सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ

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