क्या तुम अब तक बैठे हो घुटने में
सर को छुपाए, अलिंद से उतर
कर बहुत पहले दोपहर की
धूप जा चुकी है सुदूर,
पोखर किनारे
खड़ा
एकाकी खजूर पेड़ पर लौट आई है
मायावी अंधकार, थम चला
है पक्षियों का कलरव,
क्या तुम अभी
भी खोज
रहे
हो बासी फूल के नीरस गंध, अतीत
के पृष्ठों में लिखी कोई अबूझ
कविता, जीवन तो है चिर
उद्दाम, खेलता है लुक -
छुप नियति के
साथ, अब
भी
रात है बहुत बाक़ी, आलोक - छाया -
का खेल, अभी तो सिर्फ आरम्भ
की है बेला, कौन है मृग और
कौन मृगया, सब कुछ
है अनागत के
गर्भ में
समाहित, खोने और पाने के मध्य
ही छुपा है जीवन का सारांश,
ब्रह्मशिरा हर युग में
उभरती है दिगंत
पार, हर युग
में जन्म
लेता
है कोई न कोई तारणहार, हर एक -
सुबह निगलती है विषाक्त
अंधकार - -
* *
- - शांतनु सान्याल
26 सितंबर, 2020
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असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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