महा अंधकार गहराता हुआ, फिर
उठे हैं कपासी मेघदल, हर
चेहरे में है डूबने का
भय, लेकिन
किनारे,
अभी तक, अपनी जगह हैं अचल।
साँझ उतरती है सधे पाँव,
लंगर बिंदु के बहुत
पास, मंदिर -
शिखर
है कोई, या अंतरतम का प्रकाश -
स्तंभ ! हर पल जैसे बढ़ता
जाए उसे छूने का एक
प्रचंड विश्वास।
जन शून्य
घाट में,
मैं पुनश्च हूँ खड़ा, ले कर अपने ही
हाथों, अपनी ही माया मुक्त
काया, न ये सुरसरि न ही
फल्गु का सिमटता
किनारा, जो
पार हो
ले ख़ुद से, वही पा जाए गहन मर्म
सारा।
* *
- - शांतनु सान्याल
उठे हैं कपासी मेघदल, हर
चेहरे में है डूबने का
भय, लेकिन
किनारे,
अभी तक, अपनी जगह हैं अचल।
साँझ उतरती है सधे पाँव,
लंगर बिंदु के बहुत
पास, मंदिर -
शिखर
है कोई, या अंतरतम का प्रकाश -
स्तंभ ! हर पल जैसे बढ़ता
जाए उसे छूने का एक
प्रचंड विश्वास।
जन शून्य
घाट में,
मैं पुनश्च हूँ खड़ा, ले कर अपने ही
हाथों, अपनी ही माया मुक्त
काया, न ये सुरसरि न ही
फल्गु का सिमटता
किनारा, जो
पार हो
ले ख़ुद से, वही पा जाए गहन मर्म
सारा।
* *
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं शिक्षक दिवस पर।
शिक्षक दिवस की आपको भी असंख्य शुभकामनाएं - - आपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सारगर्भित।
जवाब देंहटाएंशिक्षक दिवस की बहुत-बहुत बधाई हो आपको।
शिक्षक दिवस की आपको भी असंख्य शुभकामनाएं - - आपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 06 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंमैं पुनश्च हूँ खड़ा, ले कर अपने ही
जवाब देंहटाएंहाथों, अपनी ही माया मुक्त
काया, न ये सुरसरि न ही
फल्गु का सिमटता
किनारा, जो
पार हो
ले ख़ुद से, वही पा जाए गहन मर्म
सारा।
वाह!!!
लाजवाब सृजन।
आपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंगहन विचारपरक रचना आदरणीय शांतनु जी !
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंहर
चेहरे में है डूबने का
भय, लेकिन
किनारे,
अभी तक, अपनी जगह हैं अचल।
ये पंक्तियाँ विशेष अच्छी लगीं।
आपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएं