05 सितंबर, 2020

पुनश्च - -

महा अंधकार गहराता हुआ, फिर
उठे हैं कपासी मेघदल, हर
चेहरे में है डूबने का
भय, लेकिन
किनारे,
अभी तक, अपनी जगह हैं अचल।
साँझ उतरती है सधे पाँव,
लंगर बिंदु के बहुत
पास, मंदिर -
शिखर
है कोई, या अंतरतम का प्रकाश -
स्तंभ ! हर पल जैसे बढ़ता
जाए उसे छूने का एक
प्रचंड विश्वास।
जन शून्य
घाट में,
मैं पुनश्च हूँ खड़ा, ले कर अपने ही
हाथों, अपनी ही माया मुक्त
काया, न ये सुरसरि न ही
फल्गु का सिमटता
किनारा, जो
पार हो
ले ख़ुद से, वही पा जाए गहन मर्म
सारा।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

14 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना

    शुभकामनाएं शिक्षक दिवस पर।

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  2. शिक्षक दिवस की आपको भी असंख्य शुभकामनाएं - - आपका आभार, नमन सह।

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  3. सुन्दर और सारगर्भित।
    शिक्षक दिवस की बहुत-बहुत बधाई हो आपको।

    जवाब देंहटाएं
  4. शिक्षक दिवस की आपको भी असंख्य शुभकामनाएं - - आपका आभार, नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 06 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  6. मैं पुनश्च हूँ खड़ा, ले कर अपने ही
    हाथों, अपनी ही माया मुक्त
    काया, न ये सुरसरि न ही
    फल्गु का सिमटता
    किनारा, जो
    पार हो
    ले ख़ुद से, वही पा जाए गहन मर्म
    सारा।
    वाह!!!
    लाजवाब सृजन।

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  7. गहन विचारपरक रचना आदरणीय शांतनु जी !

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  8. बहुत सुंदर रचना
    हर
    चेहरे में है डूबने का
    भय, लेकिन
    किनारे,
    अभी तक, अपनी जगह हैं अचल।
    ये पंक्तियाँ विशेष अच्छी लगीं।

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