अपने आप खुल चले हैं लम्हों की
सिटकनी, सिर्फ़ कुछ स्तम्भ
हैं बाक़ी, उन्मुक्त हैं सभी
प्राण द्वार, रिक्त है
पिंजर, कोहरे
में है
प्रवाहित अनबूझ ख़्वाहिशों की -
बालकनी। अकस्मात मौन
है छद्मवेशों का शहर,
अचानक तुम
और मैं
फिर
हैं अंतर्लीन, कदाचित बहुत पास
है आख़री पहर। तुम्हारे सीने
में है कहीं आबाद, सुख
का देश, ख़ाना -
बदोश -
दर्द
मेरे चाहें वहां अदृश्य प्रवेश। कोई
मेघ संग उड़ता ख़त, छूना चाहे
मेरी पलकों को, शायद
उसे मालूम है रत -
जगे ख़्वाब का
ठिकाना,
कुछ
कविताएं शीर्षकविहीन,परिचित
गंध लिए, दुआओं के मौन
शीत स्पर्श रख जाती हैं
चुपचाप उष्ण माथे
पर, फिर कोई
विवर्ण
पलों को चाहता है निशिपुष्प से
सजाना, उसे मालूम है रत -
जगे ख़्वाब का ठिकाना।
* *
- - शांतनु सान्याल
25 सितंबर, 2020
ख़्वाब का ठिकाना - -
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