तुम्हीं गढ़ने वाले, तुम्हीं हो उपासक
और तुम ही हो डूबाने वाले,
समझ के परे है ये
विनिमय का
खेल।
फिर भी मैं हमेशा की तरह दौड़ आती
हूँ, वही शिउली गंध भरे पथ से
तुम्हारे द्वार, तुम्हारे हाथों
ही होता है मेरा समर
श्रृंगार, और हो
उठती हूँ
रण -
वीरांगना, करती हूँ रिपु दल का संहार,
मुझे ज्ञात है, बहुत कठिन है उस
हाड़ मांस के असुर का दमन,
दिग दिगान्तर में बिखरे
हुए हैं सहस्त्र बीज
के अंकुरण,
तुमने
केवल खेला है गुड़ियों का खेल, शायद
इसी कारण मैं रह गई मात्र माटी
की प्रतिमा, और खेल के अंत
में बहा दी गई मलिन
स्रोत में, चिर
उपेक्षित
अबला के रूप में, तुमने गढ़ा अवश्य
लेकिन प्राण प्रतिष्ठा रही अधूरी,
इसलिए मेरी नियति रही
केवल मृण्मयी,
अंतहीन
नीरवता की प्रतीक, सिर्फ़ एक मौन - -
प्रतिमा।
* *
- - शांतनु सान्याल
23 सितंबर, 2020
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 23 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आपका शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंमेरी नियति रही
जवाब देंहटाएंकेवल मृण्मयी,
अंतहीन
नीरवता की प्रतीक, सिर्फ़ एक मौन - -
प्रतिमा।
हृदयस्पर्शी रचना....
साधुवाद 🙏💐🙏
समय निकाल कर यदि मेरे निम्नलिखित ब्लॉग पर पधारें तो कृपा होगी
https://vichar-varsha.blogspot.com/2020/09/17.html?m=0
तहे दिल से आपका शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आपका शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आपका शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंकृपया कैप्चा हटा दें। सामन्य टिप्पणी ठीक रहती है। पाठक को परेशानी होती है इससे।
जवाब देंहटाएंकैप्चा हटा दी है दरअसल बहुत सारी ब्लॉग सम्बंधित चीज़ें मुझे समझ आती नहीं, समझाने के लिए आपका आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आपका शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएं