23 सितंबर, 2020

अंतहीन नीरवता - -

तुम्हीं गढ़ने वाले, तुम्हीं हो उपासक
और तुम ही हो डूबाने वाले,
समझ के परे है ये
विनिमय का
खेल।
फिर भी मैं हमेशा की तरह दौड़ आती
हूँ, वही शिउली गंध भरे पथ से
तुम्हारे द्वार, तुम्हारे हाथों
ही होता है मेरा समर
श्रृंगार, और हो
उठती हूँ
रण -
वीरांगना, करती हूँ रिपु दल का संहार,  
मुझे ज्ञात है, बहुत कठिन है उस
हाड़ मांस के असुर का दमन,
दिग दिगान्तर में बिखरे
हुए हैं सहस्त्र बीज
के अंकुरण,
तुमने
केवल खेला है गुड़ियों का खेल, शायद
इसी कारण मैं रह गई मात्र माटी
की प्रतिमा, और खेल के अंत
में बहा दी गई मलिन
स्रोत में, चिर
उपेक्षित
अबला के रूप में, तुमने गढ़ा अवश्य
लेकिन प्राण प्रतिष्ठा रही अधूरी,
इसलिए मेरी नियति रही
केवल मृण्मयी,
अंतहीन  
नीरवता की प्रतीक, सिर्फ़ एक मौन - -
प्रतिमा।
* *
- - शांतनु सान्याल


12 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 23 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. मेरी नियति रही
    केवल मृण्मयी,
    अंतहीन
    नीरवता की प्रतीक, सिर्फ़ एक मौन - -
    प्रतिमा।

    हृदयस्पर्शी रचना....
    साधुवाद 🙏💐🙏

    समय निकाल कर यदि मेरे निम्नलिखित ब्लॉग पर पधारें तो कृपा होगी
    https://vichar-varsha.blogspot.com/2020/09/17.html?m=0

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  3. कृपया कैप्चा हटा दें। सामन्य टिप्पणी ठीक रहती है। पाठक को परेशानी होती है इससे।

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  4. कैप्चा हटा दी है दरअसल बहुत सारी ब्लॉग सम्बंधित चीज़ें मुझे समझ आती नहीं, समझाने के लिए आपका आभार - - नमन सह।

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