15 सितंबर, 2020

बिहान के गर्भ में - -


सार्वभौम सत्ता का स्वप्न रहा
अपूर्ण, शुद्धोधन का हठयोग  
न  रोक सका सिद्धार्थ
का पथ, समस्त
मायामोह के
बंधन
तोड़ वो एक दिन हुआ बुद्ध, - -
दरअसल अनागत
घटनाओं का
आँकलन
है बहुत
दुरूह, माथे की मौन लकीरों
में रहता है नियति का
गुप्त न्याय, और
वो  रहता है
अपरिवर्तनीय, अदृश्य शक्तियों
के आगे वो सदैव है मुष्टिबंद,
आज और आगामी के
मध्य की दूरी है
बहुत ही
कम,
रात गुज़रते ही सब कुछ हो जाए
 स्पष्ट, उस रहस्यमय  
बिहान के गर्भ में
है जीवन का
मर्म,सुख
दुःख
के श्रृंखल में बंधी हुई है ये सृष्टि,
आज तुम हो दिग्विजयी
राजन, संभवतः कल
तुम खड़े हो
एकाकी
मणिकर्णिका घाट तीर, हाथ में
लिए हुए भाग्य का रिक्त
कमंडल, जीवन
प्रवाह है
बहुत
अनिश्चित, विगत कल सीढ़ियों
को छूता  रहा जलधार,
आज दूर तक है
बालुओं का
एकक्षत्र
साम्राज्य, नदी निःशब्द बदल
गई बहने की दिशा
एक ही रात में,
सब कुछ
गया
बदल, नियति पर नहीं किसी का
कोई दख़ल - -
* *
- - शांतनु सान्याल  





5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (16-09-2020) को  "मेम बन  गयी  देशी  सीता"    (चर्चा अंक 3826)        पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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