28 सितंबर, 2020

निरुत्तर पलों का इतिहास - -


अचानक एक दिन, उसने पूछा - दिल
की गहराइयों का पता, प्रेम की
परिसीमा, न जाने क्या था
उसके अनुभूति का
मापदंड, मैं
निर्वाक
उसे देखता ही रहा, शायद तब सूर्य -
डूबने को था, निःशब्द छपाक
की तरह, उसके आँखों में
तैरते आए नज़र
प्रश्नचिन्हों
के भंवर,
जवाब की तलाश में चुराती रही मेरी
निगाह उसकी नज़र, और उसी
कश्मकश में कब शाम ढली
और कब घिर आया
सुरमयी अँधेरा
पता ही
न चला, कुछ प्रश्न, आजन्म रहते हैं
निरुत्तर, नीरवता के सीने में
उस दिन टूटे थे स्वप्निल
गुलदान, सठिक
विकल्प
खोजना था उन पलों में बहुत कठिन
देह और प्राण के दरमियान,
नज़रअंदाज़ करना भी
न था आसान,
उसके
संक्षिप्त निगूढ़ प्रश्न का उत्तर मैंने
चाहा था गढ़ना अपने इच्छाओं
के अनुरूप, जहाँ प्राण का
मूल्य था नगण्य
और दैहिक
सत्ता
थी अमूल्य, केवल बाह्य आवरण - -
और छद्म रंगरूप, गंध विहीन
पुष्प की नियति, रंगीन
कागज़ों से उभरी
चमकदार
कृति,
शायद यही वजह थी कि कुछ ही पलों
में जल के राख हुए अगर - चन्दन
के धूप, सिर्फ़ उठा गंधविहीन
उर्ध्वमुखी धुआं, और
पृथ्वी पर पड़ा
रहा शापित
निर्जल
देह का कुआं।
 * *
- - शांतनु सान्याल
    
 

 



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