सब संतुलन का खेल है, दो छोरों के
मध्य खींची हुई है नियति की
रस्सी, जीवन को गुज़रना
है एहतियात से दोनों
हाथ लिए सपनों
के पतवार,
मौसम
गा रहा है रहस्यमयी सुर में सरगम,
संतुलन के खेल में अपने पराए
सभी हैं बराबर, सभी हैं
एक समान दर्शक,
कभी शाबासी
और कभी
बद दुआ
बेशुमार, लड़खड़ाते कभी संभलते उस
पार पहुँचने की कहानी कुछ भी
नहीं, रस्सी के नीचे थी फूलों
की वीथिका या अशेष
मरुधरा, ज़रा भी
सोचने का
वक़्त
ही न मिला, मेरी आँखों में था उस पार
का बिल्लौरी किनारा, मेरी भूमिका
ही थी सब से अहम, मैंने
निभाया उसे सारा,
न कोई मुझ
से जीता
न मैं
ही किसी से हारा, इसलिए मुझे किसी
बात का तनिक भी पछतावा न
रहा, "जिओ और जीने दो"
ही रहा ज़िन्दगी का
एकमेव अदृश्य
नारा।
* *
- - शांतनु सान्याल
28 सितंबर, 2020
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सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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