09 सितंबर, 2020

नुमाइशगाह से -

अवाक थे सभी अपने पराए, मैं
आख़िर सूली से उतर आया,
उन्हें क्या मालूम किस
तरह से मैंने अपनी
रूह को बंधक
रखा, अब
लोग
ग़र समझते हैं मुझे मसीहा तो
रहने दो उनका भरम ज़िंदा,
वास्तविकता जो भी हो
मेरे बच के आने
से रहने दो
उनका
धरम ज़िंदा । लेन - देन यूँ ही
बदस्तूर चलेगा, न आदि
न अंत है इस जोड़ -
तोड़ के खेल
का, तुम
गढ़
लो अपना अक्स सुनहरे फ्रेम
में, ये ज़माना है प्रवंचकों
का, तुम्हारा चेहरा
नुमाइशगाह
में भरपूर
चलेगा।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 09 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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