19 सितंबर, 2020

अंत बिंदू के उस पार - -

फिर किसी घुमावदार मोड़ में मिलेंगे,
अभी तक है हवाओं में जानित
गंध, ख़ुद को उजाड़ के
खड़े हैं दोनों तरफ
सालवन,
वसंत
आए या न आए ये उसकी विवशता है,
अपरिहार्य है लेकिन पुनर्मिलन।
एक मुट्ठी नील बिखेर दी
है दिगंत के उस पार,
कुछ जल छवि
मेघ, जमे
हुए
पुरातन आवेग, काश बूंद बूंद बरसे -
महावर सने पाजेब ! कुछ बाक़ी
हैं उधार, कुछ वापसी उपहार,
अशेष लेन देन, कैसे
कह दें सिर्फ़
शून्य है
अंत बिंदू के उस पार, एक मुट्ठी नील
बिखेर दी है दिगंत के उस पार।
* *
- - शांतनु सान्याल


8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 19 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. असंख्य धन्यवाद परम मित्र, आपके मंतव्य के बिना मेरी रचना अपूर्ण सी लगती है - - नमन सह ।

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