तमाम रात गुज़रे लम्हों का
हिसाब मांगता रहा हृदय,
अंतमिल दे न सका
आख़री पहर,
निशिपुष्प
ने कहा
अब नहीं कुछ भी मेरे पास
गंध संचय, हिसाब
मांगता रहा
हृदय,
अलिंद छू कर लौट गए - -
स्वप्न समीर, अब
आईना चाहे
मेरा
नग्न परिचय, हिसाब - - -
मांगता रहा हृदय,
मुखौटों में
अभी
तक है हँसी की छुअन, - -
प्रतिबिम्ब को है
अस्तित्व का
संशय,
हिसाब मांगता रहा हृदय, -
कभी थी उत्सुकता
सुबह की दस्तक
की, अब हर
आहट से
लगता है भय, हिसाब मांगता
रहा हृदय, कालजयी है
भोर की किरण,
अंततः फिर
खुलेंगे
निद्रित किशलय, हिसाब - -
मांगता रहा
हृदय - -
* *
- - शांतनु सान्याल
14 सितंबर, 2020
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नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 15 सितंबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंमनुष्य के दो स्वरूप का परिचय कराती रचना। सोचनीय।
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
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