03 सितंबर, 2020

प्रतीक्षारत बिहान - -

रात कभी थकती नहीं, चलती जाती
है अकेली ही, सुदूर ऊंघती हुई
पहाड़ियों के उस पार,
पगडण्डी के दोनों
तरफ पड़े
रहते
हैं कुछ सिक्त चाँदनी के अवशेष,
कुछ देह में घुले हुए क्लांत
गंध, कुछ ख़्वाबों के
नुकीले ज़ख्म,
कुछ थमे
हुए
क्षितिज के धुंधले बादल, लेकिन
वो रूकती नहीं उसे हर हाल
में छूना है सुबह की
नाज़ुक धूप, वही
एक मरहम,
वही तो है
जीवन
के
लिए वरदान का अनन्य रूप, रात
चलती जाती है, धीरे - धीरे यूँ
ही गिरते संभलते हुए,
पहाड़ियों के उस
पार, वृष्टि -
छाया
का
है बंजर प्रदेश, फिर भी उसे जाना
है वहीँ, जहाँ है उसका उत्स
एवं गंतव्य शेष, दोनों
तरफ पथ के बिखरे
पड़े है नीहार -
बिंदु,
क्षितिज पे फिर खड़ा हूँ मैं रिक्त
हाथ,लेकिन एक नया बिहान
है मेरे साथ - -

* *
- - शांतनु सान्याल



 

 

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपका अमूल्य मंतव्य प्रेरणा का स्रोत है - - शुभ रात्रि, नमन सह।

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  2. "छाया
    का
    है बंजर प्रदेश, फिर भी उसे जाना
    है वहीँ, जहाँ है उसका उत्स
    एवं गंतव्य "
    सुन्दर रचना।

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  3. आपका अमूल्य मंतव्य प्रेरणा का स्रोत है - - नमन सह।

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-09-2020) को   "शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ"   (चर्चा अंक-3815)   पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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  5. आपका अमूल्य मंतव्य प्रेरणा का स्रोत है - - नमन सह।

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