टीले पर खड़े हो कर सोचता हूँ
सारी पृथ्वी का रहनुमा हूँ
मैं, और क्यों न सोचूं
मैंने ही उगाए है
नागफनी के
घने
झुरमुट, ताकि मुझ तक पहुंचना
हो मुश्किल, और अगर पहुंचे
भी किसी तरह, तो अन्न
वस्त्र तो मुझ से ही
मांगोगे, देख
लो अपनी
आँखों
से बिखरे हुए विद्रोह के अधोवस्त्र,
सोच लो मुझ से बच कर
निकलना है कितना
मुश्किल। अगर
भागे भी
किसी
तरह तो अदृश्य भुजंगों से निपट
न पाओगे, आख़िर मेरी ही
शरण में आओगे, मैं
ही हूँ ऋत्विक,
मैं ही
विषाक्त पुरुष, तुमने देखा है सिर्फ़
सतह, अभ्यंतरीण तक कभी
न पहुँच पाओगे, आख़िर
मेरी ही शरण में
आओगे।
* *
- - शांतनु सान्याल
12 सितंबर, 2020
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लिखते रहे
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंहिन्दी दिवस की अशेष शुभकामनाएँ।
हिंदी दिवस की असंख्य शुभकामनाएं - - नमन सह।
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