वो आदमी जो फूटपाथ पे रात
दिन, धूप छांव, गर्मी सर्दी
अपने हर पल गुज़ार
गया, काश जान
पाते उसके
ख़्वाबों
में ज़िन्दगी का अक्स क्या था,
वो शख़्स रोज़ झुकी पीठ
लिए बड़ी मुश्किल
से रिक्शा
चलाता
हुआ
कल शाम गिर कर उठ न पाया,
काश जान पाते कभी उसके
दिल में सुबह की
तस्वीर क्या
थी वो
चेहरा गुमसुम रेस्तरां में आधी
रात ढले काम करता रहा,
उम्र भर गालियाँ
सुनता रहा,
काश
जान पाते उसके बचपन के हसीं
लम्हात क्या थे, वो बूढ़ा
माथे पे बोझ लादे
हुए मुख़्तलिफ़
ट्रेनों का
पता
देता रहा, मुद्दतों प्लेटफ़ॉर्म में
तनहा ही रहा, काश जान
पाते उसकी मंज़िल
का पता क्या
था, शहर
के उस बदनाम बस्ती में,पुराने
मंदिर के ज़रा पीछे, मुग़लिया
मस्जिद के बहोत क़रीब,
शिफर उदास वो
बूढ़ी निगाहें
तकती
हैं गुज़रते राहगीरों को, काश
जान पाते उसकी नज़र
में मुहब्बत के
मानी
क्या थे, वृद्धाश्रम में अनजान,
भूले बिसरे वो तमाम आँखें
झुर्रियों में सिमटी
जिंदगी, काश
जान
पाते, वो उम्मीद की गहराई
जब पहले पहल तुमने
चलना सिखा था,
वो मुसाफिरों
की भीड़,
कोलाहल, जो बम के फटते
ही रेत की मानिंद बिखर
गई ख़ून ओ हड्डियों
में काश जान
पाते कि
उनके लहू का रंग हमसे कहीं
अलहदा तो न था, ख़ामोशी
की भी ज़बाँ होती है,
करवट बदलती
परछाइयाँ
और
सुर्ख़ भीगी पलकों में कहीं,
काश हम जान पाते
ख़ुद के सिवा भी
ज़िन्दगी
जीतें हैं
और भी लोग - - - - - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
22 सितंबर, 2020
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 22 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - -नमन सह ।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट
जवाब देंहटाएंकाश जान पाते
वाह
असंख्य धन्यवाद - -नमन सह ।
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