इक लम्बी सी स्याह सुरंग है
हमारे दरमियां, कभी
निर्वाक देखता
हूँ मैं तुम्हें
और
कभी झाँकते हैं तुम्हारे दिल
की गहराइयों से, कुछ
शबनमी उजाले,
उन नाज़ुक
क्षणों के
सुख
बांधते हैं जीवन के जीर्ण तट -
बंध, उत्तरोत्तर खुल
जाते हैं धीरे धीरे
निःशब्दता
के सभी
गुलूबंद, फिर उसी सुरंग से -
गुज़र कर सुबह हम
उठाते हैं अपना
वही बिखरा
हुआ
शामियाना, पुनः एक अदृश्य
सेतु होती है हमारे दरमियां,
फिर जीवन नदी के
सीने में बहती
हैं स्वप्निल
पालों
की सहस्त्र कश्तियां, कदाचित
आज भी है उजान स्रोत
में कहीं जुगनुओं
की झिलमिल
बस्तियां।
* *
- - शांतनु सान्याल
01 सितंबर, 2020
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दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक सृजन।
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह ।
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