जी उठे आख़िर सब मृत तरंग,
जो आ गिरा सीने पर
मासूम हाथ का
पत्थर,
मैं वही बाँस वन का हूँ एकाकी,
गुमशुदा पोखर। न जान
पाया उस निरीह के
आँखों का राज़,
लेकिन
उठते भंवर देख उसके चेहरे में
थी इक अजीब सी ख़ुशी,वो
बहुत दिनों के बाद
मुस्कुराया था
आज।
काश मैं दे पाता उसे जलरंगी
पेंसिलों का उपहार, कुछ
कोरे भावनाओं का
संसार, शायद
वो उकेर
जाता
मेरे सीने पर कल सुबह की -
प्रथम किरण, और दे
जाता, दीर्घ
अस्तित्व
की
दुआएं बेशुमार, उसकी उन
टिमटिमाती, नन्ही
आँखों में मैंने
देखा है
अनगिनत नक्षत्रों का संसार।
* *
- - शांतनु सान्याल
जो आ गिरा सीने पर
मासूम हाथ का
पत्थर,
मैं वही बाँस वन का हूँ एकाकी,
गुमशुदा पोखर। न जान
पाया उस निरीह के
आँखों का राज़,
लेकिन
उठते भंवर देख उसके चेहरे में
थी इक अजीब सी ख़ुशी,वो
बहुत दिनों के बाद
मुस्कुराया था
आज।
काश मैं दे पाता उसे जलरंगी
पेंसिलों का उपहार, कुछ
कोरे भावनाओं का
संसार, शायद
वो उकेर
जाता
मेरे सीने पर कल सुबह की -
प्रथम किरण, और दे
जाता, दीर्घ
अस्तित्व
की
दुआएं बेशुमार, उसकी उन
टिमटिमाती, नन्ही
आँखों में मैंने
देखा है
अनगिनत नक्षत्रों का संसार।
* *
- - शांतनु सान्याल
वाह
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 08 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका आभार, नमन सह।
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