गर्भ से मृत्यु तक, उसे सिर्फ़ है लड़ना
अस्तित्व बचाने के लिए नहीं,
बल्कि सारी पृथ्वी को
ख़ूबसूरत बनाने
के लिए,
ये
वही उपेक्षित पौध है जो दरख़्त बन के
देती है दुआओं भरी छाया, कभी
मरियम है और कभी महा -
माया, रखती है अपने
कोख़ में प्रजन्म
बारम्बार,
ये
वही सुरसरि है जहाँ से गुज़रता है सारा
संसार, ये वही मिट्टी है जिसके सीने
में दबी हुई है मानवता के सहस्त्र
अंकुरण, ये वही जीवनदायी
उंगलियां हैं जिन्हें थाम
के हम सीखते हैं
संस्कार का
अनुकरण,
लेकिन अफ़सोस है कि हम ही उसका
करते हैं जीवित दहन - -
* *
- - शांतनु सान्याल
11 अक्टूबर, 2020
जीवित दहन - - (राष्ट्रीय बालिका दिवस के उपलक्ष में )
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जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद परम मित्र - - नमन सह ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 11 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद परम मित्र - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरती से बयां किया आपने कि.. उपेक्षित पौध है जो दरख़्त बन के
जवाब देंहटाएंदेती है दुआओं भरी छाया
हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर... मार्मिक प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
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