पूर्व से पश्चिम तक, आम्र कुञ्ज से
थूअर तक, शिराओं से हृदपिंड
तक, जीवन का कोई
शेषप्रान्त नहीं,
कहाँ किस
मोड़
पर छोडूं तेरा हाथ, सोच के डरता हूँ,
हर तरफ है घना कोहरा, हर
तरफ हैं अदृश्य जालों
के तंतु, किधर से
बचा कर
तुझे
निकालें, इस आख़री प्रहर का कोई
उपांत नहीं, ये प्रेम है या दैहिक
अधिकरण कहना है बहुत
कठिन, विच्छेद की
सोच से भी
होती
है
इक अजीब सी सिहरन, तुम सीख
लो, लॉग आउट से लॉग इन, जो
कुछ है इस पल के ख़ाते में
है बंद, क्या खोया,
क्या पाया, कुछ
भी इसके
उपरांत
नहीं, जीवन का कोई शेषप्रान्त नहीं,
उड़े थे सभी उत्तरायण सफ़र
में एक संग, लिए रंगीन
सपनों के पंख, नभ -
पथ में कौन
किस
तरफ़ मुड़ा कहना है मुश्किल, तारों
से लटकते
मांझों को शायद
मालूम हो उनका पता,
लेकिन छूना नहीं
उनको, वो
स्थिर
हो कर भी शांत नहीं, जीवन का - -
कोई शेषप्रान्त नहीं।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 अक्तूबर, 2020
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 28 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसम्पूर्ण रचना में भावों का दरिया बिना अवरोध बहता हुआ ..गागर में सागर के भाव को पुष्ट करता ..लाजवाब सृजन आदरणीय . सादर नमस्कार!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंमांझों को शायद
जवाब देंहटाएंमालूम हो उनका पता,
लेकिन छूना नहीं
उनको, वो
स्थिर
हो कर भी शांत नहीं, जीवन का - -
कोई शेषप्रान्त नहीं।
वाह क्या बात है बहुत सुंदर
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंइस पल के खाते से प्रस्फुटित हुई सुंदर कृति ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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