एक सिरे से बुनो ख़्वाब, तो दूसरा
सिरा अपने आप उधड़ जाए,
ज़िन्दगी का ताना-बाना
किसी पहेली से कम
नहीं, अभी अभी
जो है मेरे
हथेली
के बीच एक छोटी सी बूंद, पलक
झपकते कहीं वाष्प बन कर
न उड़ जाए। वक़्त की
छुअन छोड़ जाती
है तन मन में
अनेकों
निशानियां, कभी टाट के बिस्तर
देते हैं मरमरी शीतलता और
कभी आग उगलती हैं
झाड़ फ़ानूस की
परछाइयां।
ये वही
वयोवृद्ध रास्ता है जो नदी घाट -
की सीढ़ियों से उतर कर
भूल जाता है अपना
ठिकाना, जल -
गर्भ में
हो
कदाचित परिपूर्ण शांति, कोलाहल
से मुक्ति, किनारे के बाती -
स्तम्भ उसे बुलाते हैं
झिलमिलाते हुए,
बिम्बों के
सहारे,
वो
बहुत ख़ुश है अपने इस निमज्जन
में, वो नहीं चाहता लौट जाना,
उसे याद भी नहीं अतीत
का कोई ठिकाना।
* *
- - शांतनु सान्याल
12 अक्तूबर, 2020
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जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 13 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
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