अवरोह पथ में हों जब सूर्य की ताम्रवर्णी
किरण, तब साँझ के बेहद क़रीब है
ये जीवन, तुम्हारा प्रेम अभी
भी लिप्त है शिराओं के
मझधार, यद्यपि
झर चले हैं
बादामी
पत्ते,
हवाओं के साथ क्रमशः, तुम आज भी हो
डंठल की तरह जुडी हुई, देह प्राण के
किनार, तुम्हारा प्रेम अभी भी
लिप्त है शिराओं के
गहन मझधार।
विस्मित हूँ,
ऋतु -
परिवर्तन से तुम आज भी हो बेअसर - -
तुम ने आज भी सीने से लगा
रखा है, पहली मुलाक़ात की
नेत्र स्वरलिपि !
तुम्हारा ये
प्रेम है
मेरे कल्पनाओं से परे, ख़ुद को उजाड़ -
कर ऐसा अनंत प्रेम, मैंने चाहा न
था, जो भी हो, मैं आज भी
नहीं चाहता, ह्रदय दुर्ग
से तुम्हारी मुक्ति,
तुम्हारे बंदी -
गृह से
ही
जाते हैं सभी मोक्ष के रास्ते, मृत्यु के
बाद भी ख़त्म नहीं होती ये जन्म
जन्मांतर की अनुरक्ति, मैं
आज भी नहीं चाहता,
ह्रदय दुर्ग से
तुम्हारी
मुक्ति।
* *
- - शांतनु सान्याल
29 अक्तूबर, 2020
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 29 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंआशा का संचार करती सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसघन भावात्मकता,पारदर्शी बिंब योजना और निराली शब्द-योजना ने रचना को हृदयग्राही बना दिया है.
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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