08 अक्तूबर, 2020

बेघर उम्मीद - -

नाहक बांधना चाहा था उसके उच्छृंखल
आवेग को, वो कोई वन्य नदी थी
बहती रही, अपने इच्छा के
अनुसार, या तो मेरे
सीने के तटबंध
थे खोखले
माटी के
बने, जो रोक न पाए उसके उन्मुक्त भार,
वो कोई प्रेम था या एकाकी मुनिया का
लौह सलाखों से वार्तालाप, बहुत
सोचने के बाद मैंने खोल
दी पिंजरे की कील,
लेकिन उसने
उड़ने से
साफ़
किया इंकार, कदाचित ये था उसका -
बरसों से दबा अहंकार, जीवन का
चित्रांकन इतना भी सहज
नहीं, परत दर परत
खुलते जाएँ कुछ
न कुछ सजल
आँखों के
अध्याय, सुबह थी प्याज रंगी आकाश,
सिर्फ़ धुंआ ही धुंआ था जब डूबा
संतप्त सूर्य, गंगा के उस
पार, सांध्य आरती
के भीड़ में तब
जीवन था
बहुत
अकेला, खोजता रहा अपनी गुमशुदा - -
छाया, अंधकार में तमाम चेहरे
क्रमशः  विलीन हो गए,
आकाश में उभर
चले तारक -
पुंज, फिर
सजेगी
रात अपने ज़ख्मों के हाथ, सुबह को छूने
की कोशिशें नाकाम हर बार, बेघर
उम्मीद हमेशा की तरह बैठा
रहेगा दिगंत के कगार।

* *
- - शांतनु सान्याल

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 09 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत खूब ल‍िखा शांतनु जी, और बहुत सही क‍ि
    खोल
    दी पिंजरे की कील,
    लेकिन उसने
    उड़ने से
    साफ़
    किया इंकार, कदाचित ये था उसका -
    बरसों से दबा अहंकार, जीवन का
    चित्रांकन इतना भी सहज
    नहीं...कहां सरल होता है जीवन का च‍ित्रांकन करना...

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