फ़र्श में बिखरे हुए हैं कांच के ख़्वाब,
और मेज पर कुछ इत्र की बूंदें !
उंगलियों में बींधे हैं किसी
के प्रगाढ़ नुकीले स्पर्श,
जगाता हूँ मैं ख़ुद
को आधी -
रात,
नीम बेहोशी से, फिर किसी ने कहा
है बहुत कुछ, वक़्त को रोक कर,
बेहर्फ़, ख़मोशी से। अजीब
सा इक गहरा सुकून
है किसी की गर्म
सांसों में, रूह
बोझिल
लौट
आती है बारहा, बेजान जिस्म को -
जिलाने के लिए, दवा ओ दुआ
के दरमियां है, बहुत थोड़ा
सा फ़ासला, लेकिन
कोई अक्सर
आता है
इन
दोनों के बीच से निकल कर, मुझे
दर्द से मुकम्मल निजात
दिलाने के लिए,
बेजान इस
जिस्म
को
जिलाने के लिए। समेटता हूँ मैं - -
अपना वजूद, रखता हूँ फिर
एक नया ख़ाली इत्रदान
मेज के ऊपर, कोई
ख़ुश्बू मेरे सीने
से पार हो
कर,
भर जाती है ज़िन्दगी का सूनापन
दूर तक - -
* *
- - शांतनु सान्याल
20 अक्तूबर, 2020
इत्रदान - -
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 22 अक्टूबर अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंकभी कभी अपनी ही मनःस्थिति का प्रतिबिंब किसी रचना में देखना हतप्रभ कर जाता है। बहुत गहन भाव।
जवाब देंहटाएंआपके उद्गार कविता को पूर्णता प्रदान करते हैं, आपने बिलकुल सही कहा है, कभी कभी दो विभिन्न व्यक्तियों के मनोभाव में साम्यता होती है, और यही ज़िन्दगी के अनजाने पहलू हैं, हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएं