21 अक्तूबर, 2020

दहलीज़ की तख़्ती - -

पेड़ पर बांधे गए धागे हवा उड़ा
ले गई, कुछ रहा बाक़ी,
तो वो थी मन्नतों
की परछाई,
सीढ़ियों
का माया जाल ले डूबा किनारे
पर, घुटनों तक पानी का
अनुमान, ले गया
अथाह गहराई
तक ।
वो शख़्स जो हथेली देख कर
उम्र की लंबाई करता
रहा बयां, ख़ुद
को काल के
हाथों
बचा न सका, लतीफ़े की तरह
हंसते हंसाते वो कच्ची धूप
से गर्म लू हो गया,
लेकिन, एक
पल भी
ख़ुद
को कभी दिल खोल के हँसा
न सका। इस उम्मीद में
कि कोई आएगा
लौट कर !
हमने
उम्र भर दहलीज़ पर चिपका
रखा था आईने की गवाही,
वो मेरे अच्छे दिनों
का दोस्त था,
फिर भी
नहीं
लौटा, इबारतों को ढूंढता हूँ
मैं कोरे पन्ने में, यूँ ही
बार बार, जबकि
ओस की
बूंदों
में घुल चुके हैं अहसास की
स्याही,किसे याद रहता
आईने की गवाही।

* *
- - शांतनु सान्याल


6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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