यही वो पड़ाव है जहाँ चेहरे से उतर रहे
हैं चेहरे, ये बहुरूपियों का है कारवां
न जाने किस, विध्वंस मोड़
पर जा के ठहरे, फिर
वही प्रतियोगिता
दोहरा रहे हैं
लोग ख़ुद
को
मानवता का रहनुमा बतला रहे हैं लोग,
समाधिस्थल पर, उजले पोशाक
पहन कर. अंधकार को जैसे
छुपा रहे हैं लोग, यही
वो जगह है जहाँ
निःशब्द
हो
कर कल रात कितने चीत्कार सो गए -
नींद भी कांप जाती है किसी बुझते
हुए चिराग़ की तरह, सहमे
हुए ख़्वाब, जा बैठे
किसी नागकनि
के जंगल
में,
देखिए कितने सत्यवादी पहरेदार हो -
गए, सिसकियाँ घुट गईं अपने
आप, अंततः सभी चीत्कार
सो गए - -
* *
- - शांतनु सान्याल
02 अक्तूबर, 2020
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जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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