पूछता है जीवन जल दर्पण से
अपना लुप्त स्रोत, कौन हूँ
मैं, कहाँ है मेरा पैतृक
ग्राम, वो सिर्फ़
सुनता है
और
देखता है किनारे की ओर, उठ
रहा है जहाँ केवल धुंआ
कुछ चकमक पत्थर
की चिंगारियां
कुछ
अतृप्त चाहतों के आयाम। - -
आकाश तट में नहीं
रुकता नक्षत्रों का
समारोह,
तुम्हारे
सभी
प्रश्नों का कोई औचित्य नहीं,
कठपुतली से ज्यादा
तुम्हारी कोई
पहचान
नहीं,
डोरी वाला भी कौन है मुझे
मालूम नहीं सिर्फ़ दूर
तक है गहराया
हुआ तुम्हारा
मोह
केवल मोह । जिज्ञासा ख़ुद
को पाती है बहुत ही
असहाय, कहती
है जीवन से
अभी
तुम्हारे प्रश्नों में जवाब - -
पाने की गहराई नहीं,
लौट जाओ साँझ
बाती से पहले,
अभी तक
हैं क़ैद
चहारदीवारी में तुम्हारे सभी
ख़्वाहिशों के बागान और
टूटे कांच के नुकीले
पहरेदार, तुम
अभी भी
हो
छायापथ के पथिक तुम्हारी -
अपनी कोई परछाई
नहीं।
* *
- - शांतनु सान्याल
13 अक्तूबर, 2020
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बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 14 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
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