29 अक्तूबर, 2020
सिमटती हुई परछाइयां - -
कुछ उजली सी रात, कुछ धुंधले से
स्पर्श, जंगली फूलों के गुच्छे,
कुछ अज्ञेय शब्दों की
सीढ़ियां, ले जाएँ
मुझे किसी
विषपायी
मुख
की ओर, अधजली सी मोमबत्तियां
कुछ उनींदी झूमर की सिहरन,
कुछ अदृश्य उंगलियों के
निशान, इक दीर्घ -
श्वास, सीने
में कहीं
थमा
हुआ सा उन्मत्त तूफ़ान, सम्मोहित
गंध, कुछ बिखरे हुए कांच के
मुहूर्त, अंतहीन धुंआ सा
उठ रहा है सुदूर नील
पर्वतों के सीने
में, धीरे -
धीरे,
तुम्हारे प्रभुत्व का साया ले चला है
मुझे, ख़ुद से बहोत दूर, कुछ
अजीब सा है, आधी रात
का सफ़र, जो सुबह
न होने की दुआ
करता है - -
* *
- - शांतनु सान्याल
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जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 30 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर और भावप्रवण रचना।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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